Why is the entire western Rajasthan worried about the Devvans | देववनों को लेकर क्यों विचलित है समूचा पश्चिमी राजस्थान: वांकल माता ओरण 112 हेक्टेयर सिमटा, रेडाणा में 800 से 200 हुए गिद्ध, गाय का दूध 2 लीटर घटा – Jaipur News


फलोदी जिले के भींयासर गांव से लगा ओरण। यहां ग्रामीणों ने पशुओं के लिए पानी की टंकी तक बनवाई है।

जैसलमेर जिले के बईया क्षेत्र में खड़े हुए आंदोलन से प्रदेश में ओरण संरक्षण का मुद्दा फिर गरमा उठा है। कारण- जिस प्रदेश में खेजड़ी के वृक्ष को बचाने के लिए 363 महिला-पुरुषों ने अपने प्राण दे दिए, वहां औषधीय-गुणकारी वनस्पति से भरे 25 हजार से ज्यादा ओरण क

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यहां ग्रामीणों का मानना है कि पुरखों ने वन्यजीवों से लेकर मनुष्यों तक सभी के हित में अथक परिश्रम कर ओरण खड़े किए हैं। अब सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं व अन्य उद्देश्यों के नाम पर ओरण की जमीनों पर ‘अतिक्रमण’ किया जा रहा है। इससे ओरण नष्ट हो जाएंगे।

न सीमांकन, न स्पष्ट कानून

प्रदेश में भूमि संबंधी कानूनों में ओरण का उल्लेख नहीं होने और स्पष्ट सीमांकन के अभाव में सरकारें ओरण की भूमि का आवंटन विभिन्न उपयोग के लिए करती रही हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद सरकार डीम्ड फोरेस्ट श्रेणी लाई। फरवरी में 5 हजार ओरणों के 4 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल का नोटिफिकेशन भी किया है। इधर, जैसलमेर में ओरण संरक्षण का मामला उठाने वाले शिव विधायक रवींद्र सिंह भाटी कहते हैं कि ओरण हमें विरासत में मिले हैं। पुरखों ने इनके लिए प्राणों की आहुतियां तक दी हैं। इन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए।

25 हजार ओरण पर कब्जे, पौष्टिक चारा न मिलने से गायों की सेहत पर असर

वर्ष 2003 तक हुए एक अध्ययन में कई जगह ओरण का क्षेत्रफल वर्ष 1952 के मुकाबले कम पाया गया। जैसे- बाड़मेर की चौहटन तहसील के ढोक स्थित वांकल माता ओरण का क्षेत्रफल 17947.16 हेक्टेयर मिला, जबकि 1957 में सेटलमेंट के समय यह 18059.14 हेक्टेयर था।

इसी तरह शिव के रेडाणा स्थित पाबूजी ओरण का क्षेत्रफल 8010.03 से घटकर 7947.08 और बालेबा स्थित करणी देवी ओरण का क्षेत्रफल 3745.01 से घटकर 3683.02 हेक्टेयर ही पाया गया। दरअसल खेती के लिए जमीन पर अतिक्रमण, अवैध खनन तथा सौर व पवन ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना ओरण क्षेत्र के घटने की वजह बने हैं।

जहां 800 गिद्ध थे, वहां 200 बचे ओरण अध्ययनकर्ता एवं ‘ओरण हमारा जीवन’ पुस्तक के लेखक बाड़मेर के डॉ. भुवनेश जैन बताते हैं, जहां ओरण घटा, जैव विविधता व पारिस्थितिक संतुलन गड़बड़ाने लगा। पशुपालन वाले क्षेत्रों में चारा-पानी, पशुओं के स्वास्थ्य-पोषण की समस्याएं बढ़ गईं। गायों में दूध उत्पादन 5 से घटकर 3 लीटर पर आ गया। वर्ष 1940 के मुकाबले 2000 में पक्षी भी घटे। रेडाणा के ओरण में गिद्ध 800 से घटकर 200, गुगुराजा में 25 से घटकर 5, सुगनचिड़ी में 650 से घटकर 400 दर्ज हुई।

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ओरण क्या है, किसने बनाए? ओरण का आशय अरण्य से है। यानी वन। पुराने जमाने में जब भी लोग गांव बसाते, जमीन का एक भाग ओरण के लिए आरक्षित करते। वहां तालाब, नाडी, कुआं बनाते। देवभूमि मानकर सामूहिक शपथ लेते कि ओरण से हरी टहनी तक नहीं काटेंगे। इस तरह सामुदायिक वन विकसित हुए।

इनकी जरूरत क्यों है? ओरण ‘ऑक्सीजन पॉकेट’ हैं। जहां वन्यजीव, पशु-पक्षी, मनुष्य सभी पलते थे। यहां से फल-सब्जी, केर-सांगरी, पचकूटा, गुंदा, बेर, गोंद, ईंधन के लिए सूखी लकड़ी, दवा के लिए जड़ी-बूटी आदि मिलते थे। ऊंटों के चरने के लिए ऊंचे पेड़ होते थे। सेवण, मखनी, धामण, दूधेली घास खाने से मवेशियों के दूध की मात्रा व गुणवत्ता बढ़ती थी। ओरण लोगों को अकाल से बचाता था। इसीलिए मरुभूमि में भी जीवन विकसित हो पाया था।

मुद्दा बार-बार गरमाता क्यों है? कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान के फाउंडर अमन सिंह बताते हैं, आजादी के बाद सेटलमेंट के समय सभी ओरण क्षेत्र देवी-देवताओं के नाम से रिकॉर्ड में दर्ज थे। राजस्व नियमों में देवी-देवताओं को नाबालिग मानते हुए सरकार ने इसे राजस्व विभाग के अधीन ले लिया।

ओरण की जमीन गैर मुमकिन के रूप में दर्ज है। ओरण को सरकार ने परिभाषित भी नहीं किया है। इसलिए कहीं लोग इसे राजस्व रिकॉर्ड में गोचर के रूप में दर्ज कराने का प्रयास करते हैं तो कहीं इसका विरोध करते हुए संरक्षण में ही यथावत रखने की मांग करते हैं।

तो ओरण सुरक्षित कैसे हों? डॉ. जैन व सिंह का कहना है, सरकार ओरण की परिभाषा तय करे। स्पष्ट सीमांकन करे। इनके संरक्षण की स्पष्ट नीति या गाइड लाइन जारी करे।

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