1 घंटे पहलेलेखक: वीरेंद्र मिश्र
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एक्टर संजय मिश्रा खुद को भाग्यशाली मानते है कि उन्हें इस इंडस्ट्री में कई तरह के किरदार निभाने को मिले। फिल्म ‘जाइए आप कहां जाएंगे’ में संजय मिश्रा ने एक ऐसे पिता की भूमिका निभाई है,जो बात-बात अपने बेटे की खिंचाई करता है। दैनिक भास्कर से बातचीत के दौरान संजय मिश्रा ने अपने बचपन की कुछ यादें शेयर करते हुए अपनी बेटियों की परवरिश को लेकर बात की।
फिल्म ‘जाइए आप कहां जाएंगे’ में आपने ऐसे पिता की भूमिका निभाई है, जो अपने बेटे को बात-बात पर ताना मारता रहता है। बचपन में आपके पिता जी कैसे पेश आते थे?
मेरे पिता जी जॉब के सिलसिले में बाहर रहते थे। मेरा बचपन दादा-दादी के साथ ही बीता है। दादा जी सुबह आकर पहले पंखा बंद करके कहते थे कि 10 मिनट में उठ जाना। 10 मिनट के बाद फिर आकार चादर हटाते हुए 10 मिनट का और समय देते थे। उसके बाद भी नहीं उठता था तो हाथ पकड़ कर पूरे बरामदे में दो चक्कर घुमाते हुए चौकी पर बैठा देते थे। हर चीज में उंगली करते थे। मुझे लगता था कि मेरे सबसे बड़े दुश्मन दादा जी हैं।
अब आप खुद पिता बन गए हैं, बेटियों के साथ आप का कैसा बर्ताव होता है?
दुनिया के हर बाप ऐसे ही होते हैं, जो चाहते हैं कि मेरा घर मेरे हिसाब से चले। आज मेरी बेटियां जब देर से उठती हैं तो कहता हूं कि यह कोई उठने का टाइम हैं। वे कहती हैं कि आज सैटरडे है। मैं पूछता हूं कि इसका क्या मतलब? सैटरडे और संडे को ऐसे ही देर से उठने की आदत बना लोगे, तो मंडे को वापस नींद ना खुले। आप अपने बच्चों के साथ ऐसा हो जाते हैं, यह जेनेटिक है।
बचपन में पिता जी, दादा जी की जो बातें बुरी लगती हैं, बड़े होने के बाद इस बात का अहसास हुआ कि उनका कहना सही था?
देखिए, अगर आप उनकी बातें सही मानने लगेंगे तो जिंदगी में कुछ भी नहीं कर पाएंगे। जिंदगी भर सिर्फ पिताजी बनकर रह जाएंगे। जब भी मैंने उनसे कलाकार बनने की इच्छा व्यक्त की, तो यही सुनने को मिलता था कि कौन सा कलाकार? और कोई काम करने के लिए नहीं बचा है? अगर उनकी बात सोच कर जीता, तो आज कलाकार नहीं बन पाता।
अपनी बेटियों को किस तरह की परवरिश दे रहे हैं?
मैं उन्हें नॉर्मल रहने की सलाह देता हूं। मेरा मानना है कि अगर वे नॉर्मल रहेंगी तो अच्छी तरह से जिंदगी जियेंगी। मैं उन्हें समझता हूं कि अगर जीत का सपना अगर लेकर आगे बढ़ो, तो एक बार हार कर भी देख लो। क्योंकि जिंदगी में हार से सामना कभी भी हो सकता है। इसकी वजह से जीवन में बदलाव नहीं होना चाहिए। मेरी बेटियां बहुत अच्छी हैं, लेकिन उनको मोबाइल से निजात नहीं दिला पा रहा हूं।
ऐसा क्यों?
मोबाइल एक नशा की तरह हो गया है। मेरा यह चैलेंज है कि कोई भी पिता या गार्जियन अपने बच्चों को मोबाइल से अलग नहीं कर सकता है। हम लोग भी उसमें इन्वॉल्व हो जाते हैं। मोबाइल तो अब सांस बन गई है। मैं पढ़ाई को लेकर कभी भी बेटियों पर दबाव नहीं डालता हूं। अगर किसी सब्जेक्ट में नंबर कम आता है, तो मैं कहता हूं कि कोई बात नहीं। नंबर क्या है, वो तो लेकर आयेंगी ही। बेटियों को फूटबाल बहुत प्यारा है। स्कूल में फूटबाल की कैप्टन भी हैं।
आपने बेटियों के लम्हा और पल बहुत ही खूबसूरत, मीनिंगफुल नाम रखे हैं?
मेरा मानना है कि जिंदगी मीनिंगफुल ही होनी चाहिए। नाम ऐसा हो जो लोग याद रखें।
आप बेटियों को क्या बनाना चाहते हैं?
अपने बच्चों के ऊपर कभी भी अपने विचार नहीं थोपने चाहिए। मैं भी बेटियों के ऊपर अपने विचार नहीं थोपता हूं। मैं सुबह-सुबह उन्हें क्लासिकल म्यूजिक सुनता हूं। वे सुने या ना सुने, लेकिन मैं सुनता हूं। आज नहीं, तो शायद 15 साल के बाद सुने। मैं अपनी बेटियों को एकदम नॉर्मल इंसान बनाना चाहता हूं। बिल्कुल अपने जैसा।
और, फिल्म ‘जाइए आप कहां जाएंगे’ क्या कहती है?
यह फिल्म यही कहती है कि बेटा जो करना चाहता है, उसे वह करने दें। इतना जरूर ध्यान रखना चाहिए कि कुछ ऐसा ना करें, जिससे पूरे खानदान को शर्मिंदा होना पड़े। जीवन में जरूर कुछ अच्छा करेगा, नहीं तो बाप के जैसा ही बनकर रह जाएगा।
डायरेक्शन को लेकर क्या सोचते हैं, एक फिल्म ‘प्रणाम वालेकुम’ डायरेक्ट की थी?
हमारे बड़े बुजुर्ग कहा करते हैं कि दो नाव पर पैर नहीं रखना चाहिए। अभी एक्टिंग करियर बहुत बढ़िया चल रहा है। बड़े अलग-अलग किरदार निभाने के मौके मिल रहे हैं। जो एक्टर कभी सोचते ही नहीं हैं। वैसे रोल सामने से आ रहे हैं। अभी डायरेक्शन का वक्त नहीं है।
अभी आपको ध्यान में रखकर कहानियां लिखी जा रही हैं?
यह एक एक्टर के लिए बहुत बड़ी इज्जत की बात है। जब लोग कहते है कि फिल्म की कहानी मुझे ध्यान में रखकर लिखी है। अगर फिल्म नहीं करेंगे, तो यह फिल्म नहीं बनेगी। पहले तो हम कहते थे कि भाई साहब हमारे लिए कुछ सोच लीजिए। अब जब लोग कहते है कि आपको सोच कर लिखा है, तो अच्छा लगता है। इसका मतलब यह है कि आप अपनी दिशा में सही जा रहे हैं।