राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जल प्रहरी मोहन चंद्र कांडपाल को राष्ट्रीय जल पुरस्कार दिया।
उत्तराखंड के जल प्रहरी मोहन चंद्र कांडपाल को आज नई दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रीय जल पुरस्कार दिया। इसी के साथ अब वे राज्य के पहले व्यक्ति बन गए हैं, जिन्हें यह पुरस्कार मिला। कांडपाल पिछले 36 साल से पहाड़ों में जल स
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पुरस्कार मिलने के बाद अल्मोड़ा के केमिस्ट्री टीचर मोहन चंद्र कांडपाल के स्कूल आदर्श इंटर कॉलेज सुरईखेत बिठोली में खुशी का माहौल है। स्कूल के टीचर्स और स्टाफ ने इकट्ठा होकर कांडपाल को शुभकामनाएं दीं। वरिष्ठ शिक्षक कमल हर्बोला ने कहा कि कांडपाल के 36 सालों के जल संरक्षण कार्यों को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलना स्कूल और पूरे क्षेत्र के लिए गर्व का विषय है।
शिक्षकों ने इसे पूरे स्कूल का सम्मान बताया। टीचर गौरव कुमार जोशी ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र में रहते हुए कांडपाल ने “पानी बोओ–पानी उगाओ” जैसी मुहिम के माध्यम से महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। उनके प्रयासों से नौलेज और धारी क्षेत्रों में जलस्रोत रिचार्ज हुए हैं, जिससे नदियों का जलस्तर बढ़ा है।
मोहन चंद्र कांडपाल ने बातचीत के दौरान बताया कि
पानी बोओ, पानी उगाओ मुहिम के कारण आज 40 गांवों के नौले-धारों में पानी वापस लौटा है, और इन गांवों के पास से गुजरने वाली रिस्कन नदी पर भी प्रभाव पड़ा है।


नई दिल्ली विज्ञान भवन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सम्मान दिया।

इंटर कॉलेज सुरईखेत बिठोली में साथी टीचर्स ने जताई खुशी।
1990 में शुरू हुई थी जल संरक्षण यात्रा
मोहन चंद्र कांडपाल ने बताया कि उनकी यात्रा 1990 में तब शुरू हुई जब वे गांव के स्कूल में टीचर बने। पहाड़ों में सूखते जलस्रोतों की स्थिति ने उन्हें चिंता में डाला। उन्होंने पौधारोपण, खाल-चाल निर्माण और ग्रामीणों को जागरूक करने का काम शुरू किया। यह प्रयास धीरे-धीरे एक साधना में बदल गया।
एक बच्चे की बात बनी जीवन की दिशा
मोहन चंद्र कांडपाल ने अपनी प्रेरणा का जिक्र करते हुए कहा कि एक दिन क्लास 3 का बच्चा बोला -मासब, पीने को पानी नहीं है और आप नहाने-धोने की बात कर रहे हैं। इन शब्दों ने उन्हें भीतर तक झकझोर गया और उन्होंने पानी के लिए जीवन समर्पित करने का निर्णय लिया।

बंजर पड़े खेत में बच्चों के साथ खाल खोदते अल्मोड़ा के कांडपाल।
“पानी बोओ–पानी उगाओ” अभियान की नींव
1990 से 2012 तक हजारों पेड़ लगाए गए, खालें बनाई गईं, लेकिन जलस्रोत लगातार सूखते रहे। 2012 में एक बैठक में एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि जब खेत ही नहीं जोते जाएंगे तो पानी नीचे कैसे जाएगा? यही बात अभियान का आधार बनी। कांडपाल ने समझा कि मिट्टी को हल मिलने से ही बारिश का पानी जमीन में उतरेगा।
40 गांवों में लौटी जलधारा
यह अभियान रिस्कन नदी के आसपास के 40 गांवों तक पहुंचा। 10-16 सालों की मेहनत से नौले-धारे फिर भरने लगे, खेत दोबारा हरे हुए और गांवों से पलायन रुकने लगा।
कांडपाल ने बताया कि अब तक 5000 से ज्यादा खाल-चाल बनाई जा चुकी हैं। वलना, बिठोली, कांडे, गनोली सहित 27 जलस्रोत आज पुनर्जीवित हो चुके हैं। गनोली और कांडे जैसे गांव, जहां पानी के लिए भारी संकट था, आज स्थायी जल उपलब्धता वाले गांव बन गए हैं।

महिलाओं और बच्चों की बड़ी भूमिका
1990 के दशक में महिलाओं को इस मुहिम से जोड़ना चुनौतीपूर्ण था। कांडपाल ने 82 गांवों में महिला संगठन बनाकर उन्हें पौधारोपण और खाल निर्माण से जोड़ा। बाद में बच्चों को भी छुट्टियों में अभियान का हिस्सा बनाया। पारिवारिक विरोध धीरे-धीरे समर्थन में बदल गया।
जनसहयोग से बनी मिसाल
कांडपाल बताते हैं कि प्रारंभिक दौर में डॉ. ललित पांडे ने मदद की। 2012 के बाद उन्होंने रिटायर्ड कर्मचारियों और शहरों में बसे लोगों से अपील की कि जन्म, विवाह या मृत्यु जैसी घटनाओं पर खाल खुदवाकर योगदान दें।
आज यह आंदोलन जनआंदोलन बन चुका है लगभग 15 लाख रुपए के खाल रिटायर्ड और नौकरीपेशा लोगों ने दान किए हैं। अब संसाधनों की कोई कमी नहीं है और जनता स्वयं इस अभियान में आगे बढ़कर शामिल हो रही है।

