MP Indore Anant Chaturdashi 2024 Ganpati Visarjan Jhanki Story | पुतले की आंखों से पट्‌टी हटाई, तब निकाल सके झांकी: देवी अहिल्या के बेटे से जुड़े प्रसंग के कारण बीच रास्ते से लौटना पड़ा – Indore News

दस दिवसीय गणेश उत्सव आज अनंत चतुर्दशी पर पूरा हो रहा है। आज ही इंदौर की 100 साल पुरानी एक विरासत की एक और खास रात है। झांकियों के चल समारोह से पूरा शहर दमक उठेगा। इसे देखने के लिए इंदौर रातभर जागेगा।

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झांकियों के चल समारोह की शुरुआत करीब 101 साल पहले मिल मजदूर मोरू भैया पुराणिक और मैनेजर श्रीपंत वैद्य ने की थी, तब शायद ही उन्होंने कल्पना की हो कि ये इंदौर की पहचान बन जाएगा। एक मिल के अहाते से हुई पहल से आज के भव्य और दिव्य दृश्य तक की कहानी आपको 8 स्टेप में रहे हैं।

पढ़िए, कॉटन मिल मजदूरों की खुशी, मजबूरी, विरोध, आजादी के आंदोलन की झलक दिखाने से लेकर अहिल्या द्वारा अपने बेटे को हाथी से कुचलवाते दिखाने तक की झांकियों के बारे में… इस बीच एक दौर ऐसा भी आया जब झांकियां देखने के लिए लोग इस रूट के घरों की गैलरी, खिड़की और ओटले पहले बुक कर दिया करते थे।

पड़ाव 1 : हुकुमचंद मिल से बैलगाड़ी से निकली थी पहली झांकी

इंदौर में 1910 के बाद कपड़ा मिल का युग आया। अनंत चतुर्दशी पर झांकियों के जुलूस का श्रेय मिल मजदूरों को ही जाता है। ये तस्वीर भंडारी मिल से मजदूरों के साइकिल लेकर निकलने की है।

इंदौर में 1910 के बाद कपड़ा मिल का युग आया। अनंत चतुर्दशी पर झांकियों के जुलूस का श्रेय मिल मजदूरों को ही जाता है। ये तस्वीर भंडारी मिल से मजदूरों के साइकिल लेकर निकलने की है।

लेखक स्व. गणेश मतकर ने अपनी किताब ‘इंदौर दर्शन’ में यहां की मिलों का सफर बताया है। उनके एक लेख के अनुसार, ‘इंदौर में पहली स्टेट कॉटन मिल की स्थापना 1866 में हुई। 1913 से 1915 के बीच हुकुमचंद मिल अस्तित्व में आई। इसके बाद राजकुमार, होप टेक्सटाइल्स (भंडारी) और अन्य मिलें भी स्थापित हुईं। इनसे हजारों मजदूरों को काम मिला। मजदूर जब साइकिल लेकर सड़कों से एक साथ निकलते थे तो बाजार गुलजार हो जाते थे।

1915 से 1924 के बीच तोपखाना, जेल रोड, लोधी मोहल्ला, काछी मोहल्ला, जगन्नाथ विद्यालय और सिख मोहल्ला में ही गणेश प्रतिमाएं बैठाई जाती थीं। जुलूस या झांकी नहीं निकला करती थी। लावणी पोवाड़े, नाटक और व्याख्यान हुआ करते थे।

1924-25 में पहली बार हुकुमचंद मिल में मोरेश्वर पुराणिक उर्फ मोरू भैया ने गणेशोत्सव की शुरुआत की। मजदूरों से चंदा जुटाया और 10 दिन तक रोजाना 20 से 25 मजदूर आकर सिर्फ आरती-पूजा करते। 1925-26 में मिल के मैनेजर श्री पंत वैद्य ने इस उत्सव में भजन-कीर्तन को भी जोड़ दिया। यहीं से अनंत चतुर्दशी पर झांकी जुलूस की शुरुआत हो गई। प्रतिमा को एक बग्घी पर निकालने का फैसला किया गया, जिसे बैलगाड़ी की तरह निकाला।’

पड़ाव 2 : दोपहर 3 बजे निकला था पहला विसर्जन जुलूस

इंदौर में अनंत चतुर्दशी पर झांकियां 1924 से निकलना शुरू हुईं। सबसे पहले हुकुमचंद मिल ने झांकी निकाली। बाद में अन्य मिलों के मजदूर भी जुड़ गए। तस्वीर 1930-40 के दशक की।

इंदौर में अनंत चतुर्दशी पर झांकियां 1924 से निकलना शुरू हुईं। सबसे पहले हुकुमचंद मिल ने झांकी निकाली। बाद में अन्य मिलों के मजदूर भी जुड़ गए। तस्वीर 1930-40 के दशक की।

1926-27 की अनंत चतुर्दशी का दिन था। सेठ हुकुमचंद की विक्टोरिया बग्घी में श्री गणेश की प्रतिमा रखी गई। बग्घी को बांस की किमचियों से मंदिर का स्वरूप दिया गया। इसमें दोपहर 3 बजे विसर्जन जुलूस निकला। चूंकि, उन दिनों लाइट की समस्या हुआ करती थी, इसलिए तय किया गया था कि दिन में ही जुलूस पूरा कर सभी मजदूर मिलों में लौट आएंगे।

जुलूस में स्पीकर भी नहीं थे। करीब 400 मजदूर शंख, घंटाल, झांझ-मंजीरे और करताल लेकर गणपति बप्पा के जयकारे लगाते हुए स्नेहलतागंज पहुंचे। यहां से शहर के लाेग भी जुलूस में शामिल होते चले गए। जुलूस राजबाड़ा, फ्रूट मार्केट से कृष्णा नदी के पश्चिम तट स्थित गुरु दत्त मंदिर पहुंचा।

पं. बालकृष्ण शुक्ला और अन्य पंडितों ने मंत्रोच्चार कर विसर्जन प्रक्रिया पूरी की। स्वच्छ जल से भरी रहने वाली तब की कृष्णा नदी के पास कान्ह और सरस्वती नदी के संगम पर तैराकों ने प्रतिमा विसर्जित की। हुकुमचंद मिल के मजदूरों के लौटने तक अंधेरा होने लगा तो चार गैस बत्तियों और कंदील से रोशनी की गई।

पड़ाव 3 : 1947 की झांकी में आजादी के आंदोलन की झलक दिखी

स्वदेशी मिल ने भी 1929 के आसपास झांकियां निकालना शुरू कर दीं। आठवे गणेशोत्सव पर बैलगाड़ी को सजाकर शहर की सड़कों पर निकाला गया था।

स्वदेशी मिल ने भी 1929 के आसपास झांकियां निकालना शुरू कर दीं। आठवे गणेशोत्सव पर बैलगाड़ी को सजाकर शहर की सड़कों पर निकाला गया था।

1928-29 में राजकुमार मिल के मजदूरों ने भी झांकी निकालने का फैसला कर लिया। विसर्जन जुलूस में प्रतिमा के आसपास पहली बार बल्बों से आकर्षक सजावट की गई। यह प्रयोग राजकुमार मिल के तब के मैनेजर रहे अय्यर साब ने किया था।

झांकी में पांच फीट लम्बा चूहा बनाया। चूहे की बड़ी-बड़ी लाल आंखें चमकती हुई दिखाई गईं। आंखों के लिए लाल लट्‌टू लगाए गए। लट्‌टू आंख मिचौनी करते हुए खुद ही जलते-बुझते थे। तब गणेशजी के विशाल मूषक महाराज पूरे इंदौर में चर्चा का विषय बन गए थे।

1947 में मालवा मिल की झांकी में अलग प्रयोग किया गया। बैलगाड़ी पर 23 फीट लंबी झांकी निकाली गई। झांकी में कमल के दो-चार फूल खिले हुए थे। असली चूहे गणेश प्रतिमा की परिक्रमा करते हुए लड्डू खा रहे थे। इस बार सादे की जगह रंगीन बल्ब लगाए गए। कई झांकियों में देशभक्ति से जुड़े प्रसंग शामिल किए गए थे, जो आजादी के आंदोलन से प्रेरित थे।

पड़ाव 4 – आजादी के बाद पहली झांकी प्रधानमंत्री नेहरू पर बनी

जब देश आजाद हुआ तो देशभक्ति पर आधारित झांकियां भी बनाई गईं। इसमें अंग्रेजों की क्रूरता से लेकर देशभक्तों का प्रसंग दिखाया गया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का भी वर्णन रहता था।

जब देश आजाद हुआ तो देशभक्ति पर आधारित झांकियां भी बनाई गईं। इसमें अंग्रेजों की क्रूरता से लेकर देशभक्तों का प्रसंग दिखाया गया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का भी वर्णन रहता था।

1947 में स्वदेशी मिल के लिए 20 फीट लंबे हंस की शक्ल वाली झांकी मिल की रूई से ही बनाई गई। प्लायवुड का प्रयोग होने लगा। घोड़े बनाए गए, जिनके पैर, गर्दन, पूंछ हिलती-डुलती दिखाई गई। इस रथ के सारथी के रूप में तब के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को दिखाया गया। बाद में प्लायवुड की जगह बांस, घास-फूस, पत्तों-डंठलों और लाठियों ने ली। झांकियों के किरदारों को पीली मिट्‌टी, गोबर, चूना और रंगों से पोता जाने लगा।

नौशाद बैंड के संचालक अब्दुल नौशाद कहते हैं कि उनके बाबूजी को अनंत चतुर्दशी की झांकियों में बुलाया जाता था। तब बैंड-बाजे नहीं थे, सिर्फ ढोल-ताशे बजाए जाते थे। चौपाई की धुन पर जुलूस निकलता था। माच, हलुल बजाते थे। बर्तन बाजार, साटा मार्केट, कपड़ा मार्केट में 10 दिन तक दुकानदार प्रदर्शनी लगाते थे। कलाकार बुलाए जाते थे, जो हैरतअंगेज करतब दिखाते थे। वक्त के साथ सब बंद होता चला गया।

पड़ाव 5- इमरजेंसी में भी निकाली झांकी, पुतले की आंखों से पट्‌टी हटवाई

इंदौर बदला तो बैलगाड़ियों-बग्घी की जगह ट्रैक्टर-ट्राले ने ली। बड़े ट्राले नहीं होते थे, इसलिए ट्राली को ओपन करके झांकी निकाली जाती थी। लाइट्स के लिए भी ट्रैक्टर की बैटरी इस्तेमाल होती थे।

इंदौर बदला तो बैलगाड़ियों-बग्घी की जगह ट्रैक्टर-ट्राले ने ली। बड़े ट्राले नहीं होते थे, इसलिए ट्राली को ओपन करके झांकी निकाली जाती थी। लाइट्स के लिए भी ट्रैक्टर की बैटरी इस्तेमाल होती थे।

1956 के आसपास भंडारी मिल में काम करने वाले वरिष्ठ कर्मचारी श्यामसुंदर यादव बताते हैं कि क्रेज बढ़ता देख इंदौर में झांकियां बनाने में आरडी जरिया, रूपचंद पंजाबी और कुशवाहा जैसे कलाकारों के नाम भी जुड़ गए। तय हुआ कि आधा चंदा मिल मालिक भी देंगे। तब 60-70 रुपए में झांकियां बन जाती थीं। पेट्रोल 20 पैसे लीटर हुआ करता था और सोना 78 रुपए तोला।

यादव बताते हैं कि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 1975 से 1977 तक इमरजेंसी लगा दी। प्रशासन ने सख्ती दिखाई, लेकिन झांकियों को नहीं रोक सका। यह जरूर था कि उस साल जुलूस अगली सुबह की बजाय रात 12 बजे ही खत्म करना पड़ा।

1980 के आसपास हुकुमचंद मिल ने जनता की समस्याएं दिखाने वाली सरकार विरोधी झांकी बना दी। प्रशासन ने अफसर भेजे। झांकी में एक पुतले की आंखों में पट्‌टी बांधकर चक्की चलाते और आसपास कुत्तों को आटा खाते हुए दिखाया था। संदेश था- अंधा पीसे, कुत्ता खाए। अफसरों ने बदलाव कराते हुए आंखों से पट्‌टी और कुत्तों के प्रतीक हटवा दिए थे।

पड़ाव 6- बिजली गुल का जुगाड़ निकाला, ट्रैक्टर की बैटरी से की लाइटिंग

आजादी के बाद जबरदस्त उत्साह बढ़ा। भीड़ ऐसी जुटने लगी कि लोग एक दिन पहले रूट पर आने वाले घर-दुकान के ओटले, दरवाजे पर बैठ जाते। परिचितों के घर की खिड़कियां बुक की जाती थीं।

आजादी के बाद जबरदस्त उत्साह बढ़ा। भीड़ ऐसी जुटने लगी कि लोग एक दिन पहले रूट पर आने वाले घर-दुकान के ओटले, दरवाजे पर बैठ जाते। परिचितों के घर की खिड़कियां बुक की जाती थीं।

1980-1990 के दो दशक में झांकियों में बहुत प्रयोग हुए। 1983 में कलाकार आरडी जरिया ने होप टैक्सटाइल के लिए तीन झांकियां बनाईं। एक में काले नाग को सड़क पर रेंगते दिखाया, दूसरे में देश में रॉकेट परीक्षण, तीसरी झांकी हनुमानजी और राक्षसी ताड़का के बीच युद्ध दिखाया। यह इतिहास में पहली बार था कि जब तीनों पुरस्कार एक ही मिल को दिए गए। यह रिकॉर्ड आज भी कायम है।

इसी दौर में झांकी मार्ग पर आकर्षक लाइटिंग, स्पीकर पर धार्मिक गीत का चलन बढ़ा। तब कैलाश विजय रेडियो, मुन्ना इलेक्ट्रिक, साबू एंड कंपनी गोराकुंड और विनोद रेडियो इसे संभालते थे। जनरेटर के साथ ट्रैक्टर की बैटरियों से रोशनी की जाती थी। झांकियां देखने के लिए रूट की गलियों के ओटले, दरवाजे और खिड़कियों की प्री-बुकिंग होना शुरू हो गई।

इतिहासकार जफर अंसारी बताते हैं कि मिलों के बंद होने के बाद उनकी जमीनों का इस्तेमाल शुरू हुआ। इंदौर की पहली मिल रायबहादुर कन्हैया लाल भंडारी मिल (स्टेट मिल) 1866 में खुली थी, जो 1986 में बंद हो गई। तब तक इंदौर का बाजार हर तरफ मशहूर हो गया था। इसी के चलते मिल की जमीन पर ही न्यू सियागंज बनाया गया है।

पड़ाव 7- मिल बंद का असर, झांकियों में प्रशासन के खिलाफ गुस्सा दिखाया

मिलों से इंदौर में रंगत आई, लेकिन 1990 के बाद मिलें बंद होने लगीं। मजदूर बेरोजगार हो गए। फिर लोगों ने चंदा करके झांकियां निकालीं। तस्वीर इतिहास बन चुकी हुकुमचंद मिल की।

मिलों से इंदौर में रंगत आई, लेकिन 1990 के बाद मिलें बंद होने लगीं। मजदूर बेरोजगार हो गए। फिर लोगों ने चंदा करके झांकियां निकालीं। तस्वीर इतिहास बन चुकी हुकुमचंद मिल की।

1990 के बाद अनंत चतुर्दशी की झांकियों पर संकट आ गया था। मिलें बंद होना शुरू हो गईं। मजदूर बेरोजगार होने लगे। झांकी बनाने के लिए न फंड था, न रोजगार। इसके बावजूद अपनी जमा पूंजी से झांकी निकाली गईं। इससे मजदूरों में हिम्मत आ गई और उन्होंने फैसला किया कि झांकी तो हर हाल में निकलती रहेगी। परंपरा नहीं टूटेगी। मिल बंदी के खिलाफ आक्रोश के कारण झांकियों में इसे दर्शाया गया। युद्ध, इमरजेंसी भी विषय रहे।

नरेंद्र श्रीवंश कहते हैं कि 1995 के आसपास की बात है। सरकार मजदूरों के मुद्दे की अनदेखी कर रही थी। झांकियों में मजदूरों को फांसी पर लटकने के साथ रेल पटरियों पर लेटे दिखाया। प्रशासन इससे नाराज हो गया और विवादित झांकियों पर रोक लगा दी। इसके बाद हर साल झांकियां किस विषय पर बन रही हैं, इसे पहले प्रशासन द्वारा देखे जाने की परंपरा शुरू कर दी गई। विवादित झांकी को परमिशन नहीं दी जाती थी।

पड़ाव 8- अब कैसा है झांकियों के जुलूस का स्वरूप

इंदौर में अनंत चतुर्दशी को रतजगा होता है। झांकी रूट पर रात 8 से 1 बजे तक पैर रखने की जगह नहीं बचती। तस्वीर एक साल पहले ड्रोन से ली गई जिससे आप भव्यता देख सकते हैं।

इंदौर में अनंत चतुर्दशी को रतजगा होता है। झांकी रूट पर रात 8 से 1 बजे तक पैर रखने की जगह नहीं बचती। तस्वीर एक साल पहले ड्रोन से ली गई जिससे आप भव्यता देख सकते हैं।

झांकी तो बनती रहीं, लेकिन मिलें बंद होने के बाद झांकियों का स्वरूप घटा। संख्या बरकरार रही, लेकिन भव्यता में कमी आई, विषय भी वक्त के साथ बदलने लगे। नगर निगम, आईडीए जैसी संस्थाओं ने फंडिंग शुरू की तो फिर 2000 के दशक में झांकियों का क्रेज बढ़ा। तब मोबाइल ज्यादा नहीं थे और आज की तरह सोशल मीडिया पर लाइव की सुविधा भी नहीं थी।

44 सालों से झांकियां बनाते आ रहे सुभाष जरिया और उनके बेटे उदय बताते हैं, 2000 के आसपास मां अहिल्या द्वारा अपने बेटे को हाथियों से कुचलवाने पर झांकी बनी। जैसे ही झांकी मिल गेट तक आई प्रशासन ने आपत्ति ले ली। अंतत: झांकी मिल में वापस लौट गई। 2005 के बाद विषयों को लेकर बहुत सख्ती होने लगी थी।

10 साल से झांकियां बना रहे राजकुमार मिल से जुड़े प्रवीण हरगांवकर बताते हैं, हमने पहला काम 2014 में किया। झांकी की थीम को बच्चों पर केंद्रित किया। पहली बार अनंत चतुर्दशी पर लीक से हटकर मोगली की झांकी निकाली। फिर चुन-चुन करती आई चिड़िया, माय फ्रेंड गणेशा, मेरा नाम जोकर जैसी झांकियां बनाने का ट्रेंड शुरू हो गया। कॉम्पिटिशन के लिहाज से दूसरी झांकियों में भी क्रिएशन, इनोवेशन की झलक दिखाई देने लगी है। हमारी झांकी इस बार मोटू-पतलू पर आधारित है।

आज देखें तो झांकी का रूट 6 किलोमीटर लंबा हो गया। 11 बड़ी झांकियां समेत 25 से ज्यादा झांकियां निकलती हैं। झांकियां शाम 6 से 7 बजे के बीच जुलूस का स्वरूप लेते हुए बढ़ती हैं और रात 10 बजे तक भव्य स्वरूप में बदल जाती है। झांकियां भंडारी ब्रिज तिराहे से चिकमंगलूर चौराहा, जेल रोड चौराहा, एमजी रोड थाना, नंदलालपुरा चौराहा, गुरुद्वारा चौक, नृसिंह बाजार, गौराकुंड, राजबाड़ा, नगर निगम से वापस चिंकमंगलूर चौराहा जाकर अपनी मिलों और स्थानों पर पहुंच जाती हैं।

जो लोग भीड़भाड़ के कारण चतुर्दशी की रात आने से बचते हैं। उनके लिए अगले तीन दिन तक शाम 7 से रात 1 बजे झांकियों को निर्धारित स्थान पर खड़ा रखा जाता है। लोग परिवार सहित देखने आते हैं।

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