Lord Krishna’s teaching: Stop blaming yourself, lesson of lord krishna in hindi, how to get happiness in life, lesson of shrimad bhagwat geeta | श्रीकृष्ण की सीख: स्वयं को दोष देना बंद करें: खुद के लिए आलोचनात्मक नजरिया न रखें, स्वयं से प्रेम करेंगे तो जीवन बहुत आसान हो जाएगा

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6 घंटे पहले

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श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं को समझने और स्वीकार करने की सीख देते हैं। गीता हमें सिखाती है कि आत्म सम्मान केवल उपलब्धियों से नहीं आता, बल्कि सच्चाई, जागरूकता और प्रेम से आता है। श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय 6 में कहते हैं-

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

(भगवद्गीता: अध्याय 6, श्लोक 5)

मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं करना चाहिए और स्वयं को कभी गिरने न दे, क्योंकि वह स्वयं अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है।

सबसे पहले हमारा स्वयं से सामना होता है

इस दुनिया से सबसे पहले, हमारा पहला संघर्ष अपने भीतर से होता है। जब हम स्वयं को नकारते हैं, दोष देते हैं या मैं योग्य नहीं हूं, ऐसे विचारों से घिरे रहते हैं, तब हम स्वयं के विरुद्ध हो जाते हैं। यदि हम खुद के लिए इस आलोचनात्मक नजरिए को त्याग दें और स्वयं से प्रेम करना शुरू कर दें तो जीवन बहुत आसान हो जाएगा, नकारात्मक विचार दूर हो जाएंगे और मन शांत रहेगा।

खुद को दोष देना बंद कर देंगे तो जीवन में आएंगे ये बदलाव…

हम स्वयं के मित्र बन जाएंगे

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः। इसका अर्थ ये है कि हमारा संघर्ष बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक होता है। जब हम स्वयं को बिना दोष दिए स्वीकार करते हैं तो हम आत्म निंदा छोड़कर आत्म समर्थन की ओर बढ़ते हैं। जैसे एक पौधे को प्यार से सींचने पर वह खिलता है, वैसे ही स्वयं को समझदारी से देखने पर हमारा आत्म विकास होता है।

हम साक्षी भाव में प्रवेश करते हैं

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्। (अध्याय 6, श्लोक 29) ये श्लोक हमें एक शांत नजरिया अपनाने की सलाह दे रहा है। कभी भी स्वयं को सफल या असफल न कहें, सिर्फ देखें। खुद को सफल समझेंगे तो अहंकार जागेगा और असफल समझेंगे तो निराशा बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में हमें समभाव रहना चाहिए। सिर्फ हालात को और स्वयं को देखें। आत्म निरीक्षण करने से मन की उथल-पुथल शांत होती है।

हम फल की चिंता करना छोड़ देते हैं

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। (अध्याय 2, श्लोक 47) गीता के इस श्लोक में बताया गया है कि हम केवल अपने कर्म करने के अधिकारी हैं, फल के नहीं। जब हम स्वयं फल की चिंता करना छोड़ देते हैं, तब जीवन बहुत आसान हो जाता है और मन की शांति बनी रहती है।

हमारे स्वभाव में विनम्रता आती है

विद्या विनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि पण्डिता: समदर्शिन:। (अध्याय 5, श्लोक 18) ज्ञानी व्यक्ति स्वयं को और दूसरों को समान दृष्टि से देखते हैं। वे अपने दोषों से घृणा नहीं करते, बल्कि उन्हें सहानुभूति से देखते हैं। जब आप स्वयं को और दूसरों को मित्रवत दृष्टि से देखते हैं, तब स्वभाव में विनम्रता आती है।

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