Know About Dopamine Hormone; Phone Addiction In Children | Cervical Pain In Children | PUBG Game Addiction | | मोबाइल की वजह से बच्चों में सर्वाइकल-डिप्रेशन आ रहा: युवा लत को ‘जरूरत’ समझ रहे; क्या है ‘डोपामाइन’ जिससे नन्हे-मुन्ने हो रहे फोन एडिक्ट – Ajmer News

मोबाइल की लत 2 से 11 साल के बच्चों में ‘डोपामाइन’ बढ़ा रही है। एक्सपर्ट का कहना है कि बच्चे इसके प्रभाव में आकर ज्यादा से ज्यादा मोबाइल पर समय बिता रहे हैं। इसके चलते, 40 साल की उम्र के बाद होने वाली सर्वाइकल और डिप्रेशन जैसी बीमारियां कम उम्र में हो

.

भास्कर ने इसे लेकर JLN के मनोरोग विभाग, फिजिकल मेडिकल एंड रिहैबिलिटेशन विभाग और नेत्ररोग विभाग के HOD से मोबाइल की लत लगने के केसेज को जानने की कोशिश की।

एक्सपर्ट कहते हैं- डोपामाइन को खुशी के हार्मोन के रूप में परिभाषित किया गया है। लेकिन, यह खुशी का हार्मोन अगर लत बन जाए तो शरीर के लिए हानिकारक है। मोबाइल की लत के कारण बच्चों में हाइपर एक्टिव डिसऑर्डर, टेक्स्ट नेक्स्ट सिंड्रोम और डिस्पेनिया नाम की बीमारी सामने आ रही है। जहां पहले 3 से 4 केस आते थे अब यही केस बढ़कर 15 से 20 हो गए हैं। मोबाइल के ज्यादा इस्तेमाल के चलते बच्चों में गर्दन दर्द और हाथ सुन्न होने जैसी समस्याएं आ रही हैं।

पहले जानिए क्या है डोपामाइन

अजमेर के JLN हॉस्पिटल के मनोरोग विभाग एचओडी डॉ. महेंद्र जैन बताते हैं- डोपामाइन एक रिवार्ड हार्मोन है। जो हमारे शरीर में लहरों की तरह काम करता है। यह 1 सेकेंड में बढ़ जाता है तो 1 सेकेंड में घट भी जाता है। अब इसे आसान शब्दों में समझें तो जब हम घूमने जाते हैं या अपने पसंद का कोई फूड खाते हैं तब यह अपने चरम पर होता है। जितने भी नशे के रोगी आते हैं उनमें यह हार्मोन सबसे ज्यादा एक्टिव होता है। ठीक इसी तरह है मोबाइल की लत, बच्चों को फोन पर समय बिताने से यह हार्मोन उन्हें एक रिवार्ड (खुशी) देता है। धीरे-धीरे बच्चों में इसकी लत लग जाती है। जो कई बीमारियों को जन्म देती है। एक आइडल टाइम की बात करें तो बच्चों को 1 घंटे से ज्यादा फोन का इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए। वह भी तब, जब बेहद जरूरी हो।

परिवार को दुश्मन समझने लगते हैं

एचओडी डॉ. महेंद्र जैन बताते हैं- कोरोना के समय में मोबाइल का इस्तेमाल बढ़ा है। माता-पिता भी अपनी सहूलियत के हिसाब से बच्चों को फोन दे रहे हैं। हमारे पास ऐसे केस आते हैं जिसमें बच्चा चिड़चिड़ा होने के साथ-साथ अपने ही परिवार के प्रति आक्रामक हो जाता है। मोबाइल नहीं देते वाले को खुद का दुश्मन समझने लगता है। यानी जो डोपामाइन उसके शरीर में है वह मोबाइल की रील देखने से उसे खुशी दे रहा है। रोजाना 20 से ज्यादा पेरेंट्स इस तरह की शिकायत लेकर हमारे पास कंसल्ट करने आते हैं।

केस 1-

16 साल की टॉपर एडिक्शन का शिकार हुई

डॉ.महेंद्र जैन ने बताया कि इसी साल जनवरी माह में 16 साल की 11वीं में पढ़ने वाली नाबालिग को परिजन लेकर आए थे। वह अजमेर के एक नामी स्कूल से है। वह 10वीं में टॉप भी कर चुकी है। लेकिन, 11वीं में आने के बाद से वह थोड़ी सुस्त हो गई थी। वह स्कूल जाने में दिलचस्पी नहीं लेती थी। फोन नहीं मिलने पर वह रोने लगती, ऐसा दिखाती जैसे कोई जरूरत का सामान नहीं मिल रहा हो।

इसके बाद उसकी काउंसिलिंग की तो सामने आया कि वह देर रात फोन का इस्तेमाल करने लगी थी। सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों से बात करती और इसी में उसे खुशी मिलती थी। उसे स्कूल जाने की इच्छा तक नहीं होने लगी और डिप्रेशन में आ रही थी। सब्जेक्ट में फेल होना शुरू हो गई थी। 6 महीने की काउंसिलिंग के बाद अब वह नॉर्मल महसूस करती है।

केस 2-

आईटी एक्सपर्ट को पता ही नहीं चला उसे मोबाइल की लत है

डॉ. जैन ने बताया- कई बार युवाओं में ऐसा होता है कि डिप्रेशन और एंग्जाइटी होने की वजह ही उन्हें मालूम नहीं होती। धीरे-धीरे वर्क परफॉर्मेंस गिरने लगती है, सिर दर्द और चिड़चिड़ापन होने लगता है। डॉ. जैन कहते हैं- एक आईटी इंजीनियर युवक उनके पास अगस्त माह में आया था। वर्तमान में वह गुड़गांव में जॉब कर रहा है। कुछ समय से उसकी परफॉर्मेंस में कमी आने लग गई। वह अंदर ही अंदर डिप्रेशन महसूस कर रहा था। जॉब में भी आउटपुट कम आने लगा था।

काउंसिलिंग की तो एक चीज पकड़ में आई वह थी, देर रात तक क्लाइंट से मोबाइल पर प्रोजेक्ट को लेकर डिस्कशन करना। इसी वजह से उसे समस्या आ रही थी। होने को तो यह उसका जॉब था लेकिन, डिप्रेशन की समस्या यही से आ रही थी। वर्किंग यूथ लंबी मीटिंग या डिस्कशन के बाद स्लीपिंग डिसऑर्डर का शिकार हो रहे हैं। वे इसे को बीमारी समझ रहे हैं। लेकिन, काउंसिलिंग के बाद जब उनका वर्किंग पैटर्न समझ आता है तब मालूम चलता है कि कहीं ना कहीं वे मोबाइल की लत का शिकार हो जाते हैं। उन्हें लगता है यह तो उनकी जॉब है। लेकिन, यह सब मोबाइल से जुड़े रहने से होता है। इसके बाद डेढ़ महीने की काउंसिलिंग के बाद वह अब डिप्रेशन से निजात पा चुका है।

डॉ. बोले- देर रात मोबाइल का उपयोग खतरनाक

डॉ. जैन ने बताया कि वर्तमान के देखते हुए माहौल को हर एक व्यक्ति को 7 से 8 घंटे नींद लेना बहुत जरूरी है। टाइम पर सोना जरूरी है। दिन में किसी को भी नहीं सोना चाहिए। मल्टी टास्क से दूर रहना चाहिए। सभी बच्चों की काउंसिलिंग पर पता चलता है कि ज्यादा मोबाइल उपयोग के कारण ही यह हो रहा है। देर रात तक मोबाइल चलाना सबसे बड़ी गलती है।

9 बजे के बाद मोबाइल का इस्तेमाल करना बंद कर देना चाहिए। 10 बजे बाद ब्रेन के न्यूरोट्रांसमीटर, जिसे नींद वाला हार्मोन कहते हैं। वह बार-बार कहता है ब्रेन को इंस्ट्रक्शन देता है कि अब सोने का टाइम हो चुका है, सो जाना चाहिए। जिससे ब्रेन को पूरा रेस्ट मिल सके। लेकिन, कई बच्चे और युवा उसे इग्नोर करके मोबाइल चलाते हैं। जिससे नींद का पैटर्न बिगड़ जाता है। लंबे समय तक यही चलता है तो उनसे परफॉर्मेंस में कमी आती है।

कम उम्र में सर्वाइकल की समस्या- टेक्स्ट नेक्स्ट सिंड्रोम

JLN के पीएमआर यूनिट में पिछले कुछ टाइम से 8 से 15 साल तक के बच्चों में सर्वाइकल की समस्या सामने आई है। बच्चे सोफे, पलंग पर लेटे-लेटे या कुर्सी पर बैठकर एक तरफ गर्दन कर मोबाइल चलाते हैं। इससे कम उम्र में ही सर्वाइकल की समस्या बढ़ रही है।

PMR विभाग की एचओडी डॉ. प्रीति ने बताया कि जेएलएन में रोजाना सर्वाइकल पेन की समस्या से जूझ रहे बच्चे आ रहे हैं। जिसमें 8 साल तक की उम्र के रोजाना 3 से 4 और 12 से 15 साल तक की उम्र के 7-8 करीब बच्चे सर्वाइकल पेन के आते हैं। जिनकी गर्दन में दर्द, आंखों में जलन और थकान जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। इस टेक्स्ट नेक्स्ट सिंड्रोम बीमारी कहते हैं। जिसमें मोबाइल का एक ही पोजिशन में उपयोग करने पर नेक में दर्द शुरू होता है।

पब्जी से अग्रेसिव हुआ बच्चा

डॉ. प्रीति ने बताया कि उनके पास एक 13 साल का बच्चा आया था। जिसे साइकाइट्रिक प्रॉब्लम के साथ ही सर्वाइकल प्रॉब्लम भी थी। रेगुलर मोबाइल में PUBG गेम खेलने से वह अग्रेसिव हो गया। घर छोड़कर भागने लगा और चोरी भी कर रहा था। जिसे काउंसिलिंग कर सेहतमंद किया गया।

डॉ. प्रीति ने बताया कि इसके साथ ही दूसरा पेशेंट नेक पेन का आया था। जिसकी स्पाइन में बिल्कुल भी मोबिलिटी नहीं थी। जिसे साफ तौर पर कमर गठिया कहते हैं। जब इसकी जांच की गई तो उसमें सभी रिपोर्ट्स नेगेटिव पाई गई। उस बच्चे का इलाज जारी है।

कम उम्र में लग रहे चश्मे

जेएलएन अस्पताल के नेत्र रोग विभाग के एचओडी डॉ. राकेश पोरवाल ने बताया- पढ़ने के लिए भी किताब, कंप्यूटर या लैपटॉप का इस्तेमाल करना चाहिए। 14 से 18 साल तक के उम्र के बच्चे मैक्सिमम एक घंटा मोबाइल इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि स्कूल टीचर्स और प्रिंसिपल बच्चों को मोबाइल पर होमवर्क भेज रहे हैं, उसे बंद करना जरूरी है। बच्चे होमवर्क का बहाना लेकर सोशल मीडिया पर ज्यादा एक्टिव हो रहे हैं। साथ ही गेम्स भी मोबाइल पर ज्यादा खेल रहे हैं। जिससे उनकी आंखों पर फर्क पड़ रहा है। डेढ़ साल से कम उम्र के बच्चों को मोबाइल फोन किसी भी सूरत में नहीं देना चाहिए। जबकि 18 महीने से 2 साल तक के बच्चों के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल सिर्फ वीडियो कॉल के लिए किया जा सकता है। 2 से 5 साल तक के बच्चों के लिए 1 घंटे से कम समय का स्क्रीन टाइम होना चाहिए।

Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *