happiness and peace, the teachings of Shrimadbhagwad Gita, Lord krishna lesson, teaching of gita in hindi, how to get peace of mind | सुख-शांति चाहते हैं तो ध्यान रखें श्रीमद्भगवद गीता की सीख: हमारे आसपास कई लोग हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी अकेलापन क्यों महसूस होता है?

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2 घंटे पहले

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हमारे आसपास कई लोग हमेशा रहते हैं, अक्सर हम लोगों से घिरे होते हैं, बातचीत करते हैं, फिर भी कभी-कभी भीतर से अकेलापन, एक खालीपन महसूस होता है। ये अकेलापन शारीरिक नहीं, आत्मिक होता है। भगवद गीता हमें सिखाती है कि रिश्तों में सच्चा जुड़ाव नजदीकी से नहीं, बल्कि आपसी तालमेल से आता है। सच्चे रिश्तों का जुड़ाव बाहरी नहीं, आत्मिक होता है।

गीता के कुछ खास श्लोकों से समझ सकते हैं, हम अकेलापन क्यों महसूस करते हैं और इसे कैसे दूर कर सकते हैं-

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।। (भगवद गीता 18.11)

अर्थ: शरीर में जब तक आत्मा है, कर्म करना स्वाभाविक है, लेकिन सच्चा त्याग वह है, जो कर्म के फल की अपेक्षा से मुक्त होता है। जो व्यक्ति कर्मफल का त्याग करके कर्म करता है, वही त्यागी होता है।

अधिकतर लोग कर्मफल को ध्यान में रखकर कर्म करते हैं और जब उम्मीद के मुताबिक फल नहीं मिलता है तो वे निराश हो जाते हैं। हम बाहरी प्रशंसा के पीछे भागते हैं, जिससे स्वयं से संबंध टूट जाता है, आत्मिक अकेलापन इसी से उपजता है। गीता हमें कर्मफल का त्याग करने और स्वयं से जुड़ने का रास्ता दिखाती है। बाहरी लोगों की प्रशंसा पर ध्यान न देकर स्वयं की संतुष्टि पर ध्यान देना चाहिए। इस बात का ध्यान रखेंगे तो अकेलापन दूर हो सकता है।

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योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (भगवद गीता 2.48)

अर्थ: हे धनंजय, योग में स्थित होकर, आसक्ति यानी मोह त्यागकर कर्म करो। सफलता और असफलता में समान भाव रखना ही योग है।

हम केवल बाहरी रिश्तों से नहीं जुड़ते, बल्कि जब प्रेम, करुणा और निष्कामता से जुड़ते हैं, तभी रिश्तों में असली जुड़ाव होता है। सफलता-असफलता में समभाव रखते हुए कर्म करने से आत्मिक संतुष्टि बनी रहती है और मन शांत रहता है।

जब हम रिश्तों में भी समभाव रखते हैं, तब रिश्तों में प्रेम बना आता है। हम किसी से उम्मीद करें और वह व्यक्ति उम्मीद पूरी न करे तो निराशा का भाव आता है, ये भाव ही अकेलापन बढ़ता है। इसलिए रिश्तों में भी किसी के लिए बिना किसी स्वार्थ और लाभ की कामना से कुछ करेंगे तो आपसी प्रेम बढ़ेगा, अकेलेपन का भाव नहीं आएगा।

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। (भगवद गीता 18.66)

अर्थ: अपने सारे धर्मों को त्यागकर मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत करो।

रिश्तों में जब स्वार्थ और लाभ की भावना आ जाती है, तब हम खुद को दूसरों से अलग समझने लगते हैं और फिर अकेलापन पनपता है। गीता हमें संदेश देती है कि हमें अपनी सारी इच्छाएं, स्वार्थ, लाभ-हानि की भावना छोड़कर सिर्फ भगवान का ध्यान करना चाहिए। हम भगवान के ही अंश हैं और जब हम भगवान से जुड़ते हैं तो अकेलेपन की भावना खत्म हो जाती है। भगवान से जुड़ने के बाद स्वार्थ, अहंकार, लालच जैसी बुराइयां दूर होती हैं और मन शांत हो जाता है।

भगवद गीता हमें अकेलेपन को एक भय नहीं, बल्कि आत्म-संवाद का अवसर मानने का संदेश देती है। जब भी अकेलापन महसूस होता है, हमें खुद का संग करना चाहिए, भगवान का ध्यान करना चाहिए। जब हम अपने भीतर की शांति और अपनी आत्मा से जुड़ते हैं तो हमें एहसास होता है कि हम कभी अकेले नहीं हैं।

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