Gulshan Devaiah does not look at the length of the role | रोल की लेंथ नहीं देखते गुलशन दैवेया: तभी जुड़ते हैं, जब प्रोजेक्ट पसंद आता है; फिल्म का चयन गलत हुआ तो दिन गिनते हैं

17 मिनट पहलेलेखक: आशीष तिवारी

  • कॉपी लिंक

कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जो हर किरदार में अपना इंपैक्ट डाल देते हैं। गुलशन देवैया की फिल्म ‘उलझ’ हाल ही में रिलीज हुई है। इस फिल्म में वे जान्हवी कपूर के साथ नजर आए हैं। इस फिल्म में दर्शकों को गुलशन का किरदार पसंद आया। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि उनके किरदार के साथ सही से न्याय नहीं किया गया।

हाल ही में गुलशन देवैया ने दैनिक भास्कर से खास बातचीत की। एक्टर ने बताया कि वो यह नहीं सोचते है कि फिल्म में रोल कितना बड़ा है। फिल्म से तभी जुड़ते हैं, जब प्रोजेक्ट पसंद आता है। अगर फिल्म का चयन गलत हुआ तो शूटिंग खत्म होने के लिए दिन गिनते हैं।

‘उलझ’ में आपके किरदार को जिस तरह का फीडबैक मिला है, आप क्या सोचते हैं?

यह अच्छी बात है कि दर्शकों की बेसिक उम्मीदों पर खरा उतरा हूं। इससे मुझे ऊर्जा मिलती है। लोगों का यह प्यार है जो ऐसा कह रहे हैं।

लेकिन इस फिल्म में जाह्नवी कपूर को ही प्रमोट किया गया। आपको ऐसा नहीं लगता कि जिस तरह से आपके किरदार के साथ न्याय होना चाहिए नहीं हुआ ?

मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। मैं सिर्फ यही सोचता हूं कि अपना काम ठीक से कर लूं। मैं तभी किसी प्रोजेक्ट से जुड़ता हूं। जब उसमें मेरी दिलचस्पी होती है। मैं फिजूल में यह नहीं सोचता कि मेरा रोल कितना बड़ा है।

जैसे ‘बधाई दो’ में मेरा छोटा सा ही रोल था। लेकिन मुझे इंट्रेस्टिंग लगा। मैंने ‘दहाड़’ की शूटिंग से समय निकालकर वह फिल्म की। उसमें छह मिनट से भी कम रोल है। ‘हंटर’ में भी नहीं सोचा था कि मेरे रोल को लोग पसंद करेंगे। मैं यही सोचता हूं कि अगर किसी किरदार में इंट्रेस्ट है तो उसे पूरी मेहनत और शिद्दत के साथ करना चाहिए।

बधाई दो, दहाड़ या फिर उलझ का किरदार हो, उसमें जिस तरह से आपका इंपैक्ट निकल कर आता है, वह कैसे कर लेते हैं?

मुझे एक्टिंग करने में मजा आता है। इसलिए कर लेता हूं। एक बड़ी पुरानी कहावत है कि जिस काम में रुचि होती है। वह काम अच्छा होता है। वैसे ही जिस काम को करने में मजा आएगा, उसे अच्छा करेंगे।

जब आप पहले दिन किसी फिल्म की शूटिंग पर जाते हैं, तब समझ में आ जाता है कि क्या रिजल्ट होगा?

हां, थोड़ा अनुभव होने के बाद अब एक-दो दिन में पता चल जाता है कि फिल्म कैसी बन रही है। अच्छी या बहुत अच्छी बन रही है, या फिर फिल्म के चयन में गलती हो गई। ऐसे समय में सिर्फ यही सोचता हूं कि जितने दिन शूटिंग के बचे हैं। सिर्फ अपने काम पर फोकस करना है।

‘उलझ’ को लेकर सबसे बढ़िया कंप्लीमेंट क्या मिला?

‘उलझ’ को लेकर कोई बढ़िया कंप्लीमेंट मुझे याद नहीं है। अब तो कंप्लीमेंट की आदत सी हो गई। एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि फिल्म में फ्रेंच बोलने में थोड़ी सी चूक हो गई थी। जापानी अच्छा बोला है, लेकिन साउंड डिजाइनिंग में पता नहीं चला। मुझे लगता है कि बहुत सारे सीन में इंप्रूमेंट हो सकता था। लेकिन नहीं हो पाया। फिर भी डायरेक्टर ने मुझे बहुत खूबसूरत अंदाज में पेश किया।

आपसे उम्मीद की जाती है कि जो प्रोजेक्ट आप करते हैं, उसमें कुछ अलग होगा, आप क्या सोचते हैं?

मैं यह नहीं सोचता हूं, क्योंकि इससे एक प्रेशर बन जाता है। मैं वही करना हूं, जिसमें मुझे इंट्रेस्ट रहता है। इसलिए लोगों को मेरा काम पसंद आता है। इसी वजह से प्यार, मोहब्बत और इज्जत कमाई है। मैं इस चीज को बदलना नहीं चाहता हूं। हां, एक समय के बाद करियर के लिए अच्छा क्या होगा, यह जरूर सोचता हूं।

किरदारों के चयन करने का आप प्रोसेस क्या होता है?

मैं इमेजिन करता हूं कि किरदार कैसा होगा? उसके हाव-भाव कैसे होंगे,कैसे बोलता होगा, यह सब मैं सोचता हूं। जब स्क्रिप्ट मिलती हैं तो उससे बहुत सारी बातें समझ में आ जाती है। वैसे भी हर डायरेक्टर का अपना अगल स्टाइल और विजन होता है।

जैसे कि जब अनुराग कश्यप किसी फिल्म का ऑफर देते हैं, तो समझ में आ जाता है कि उसमें किरदार कैसा होगा? ऐसे ही भंसाली सर का कुछ और होगा। हमें उस चीज को समझना बहुत जरूरी है। ‘उलझ’ के लिए जब डायरेक्टर सुधांशु सरिया से मिला तो यह समझने की कोशिश किया कि वो किस तरह से कहानी कहना चाहते हैं। फिर मैं सोचता हूं कि इसमें अपनी तरफ से क्या कर सकता हूं।

फिल्म डायरेक्टर का माध्यम है। एक एक्टर होने के नाते खुद को डायरेक्टर के सामने सौंप देते हैं, या फिर अपनी तरफ से कुछ और करने की कोशिश करते हैं?

फिल्मों में सबका योगदान होता है। चाहे वो डायरेक्टर हो, एडिटर, सिनेमैटोग्राफर या फिर स्पॉटबॉय हो। सब अपना-अपना काम करते हैं। इसलिए फिल्म की क्वालिटी अच्छी होती है। पसंद और नापसंद अलग बात है। फिल्म का डायरेक्टर सबसे महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि उसकी जिम्मेदारी होती है कि कहानी को कैसे कहें? मेरे लिए उस चीज को समझना बहुत जरूरी है। उसके बाद सोचता हूं कि उस किरदार को कैसे करना है।

ओटीटी के आने से आप जैसे एक्टर्स को कितना फायदा मिला है?

सिर्फ एक्टर्स को नहीं, बल्कि सभी को अच्छे मौके मिले हैं। ओटीटी के आने से एक पैरलर इंडस्ट्री खड़ी हो गई है। 2011 में मेरी शुरुआत हुई थी। उस समय प्रोफेशनल थिएटर, वॉयस ओवर, विज्ञापन, फिल्म और टेलीविजन था। अब ओटीटी बहुत बड़े पैमाने पर आया है। कहानियों को विस्तार में पेश किया जा रहा है। सभी कलाकारों और टेक्नीशियन को फायदा हुआ है। लेकिन इससे कंपटीशन भी है, क्योंकि यह एंटरटेनमेंट का एक और बड़ा माध्यम आकार खड़ा हो गया है।

आपकी अब तक की जो जर्नी रही है, उसमें सबसे बड़ी लर्निंग क्या रही?

सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण लर्निंग यह रही है कि आर्ट्स में मेरिट के बारे में नहीं सोचना चाहिए। यह मैं बहुत पहले ही समझ गया था। पसंद या नापसंद हो सकता है। लेकिन मेरिट के आधार पर किसी को जज नहीं कर सकते हैं। हर किसी का अपना एक अलग नजरिया होता है। किसी को ऐश्वर्या राय तो किसी को सुष्मिता सेन सुंदर लगती हैं।

इंडियन फिल्म इंडस्ट्री कौन सी बात आपको अच्छी लगती है और कौन सी चीज बदलना चाहेंगे?

यहां किसी के काम को बड़ा तो किसी के काम को छोटा समझा जाता है। यह बात सिर्फ इंडस्ट्री की नहीं बल्कि हमारे समाज की भी है। इस बात से मुझे प्रॉब्लम होती है। मैं इसमें बदलाव लाना चाह रहा था, नहीं कर पाया। लेकिन इस विषय में बात करता रहता हूं। इंडियन फिल्म इंडस्ट्री की अच्छी बात यह है कि आपके अंदर अगर हुनर है तो मौके जरूर मिलेंगे। यह अलग बात है कि उसमें सफलता कितनी मिलती है।

इस बात से आप कितना सहमत हैं कि फिल्मी पार्टियों में आने-जाने से काम मिलता है?

बिल्कुल, क्योंकि वहां आपको इंप्रेस करने का मौका मिलता है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इससे काम मिलेगा। हालांकि मैं ज्यादा जगह नहीं जा पाता हूं। लेकिन मेरे कुछ दोस्त हैं जो हर जगह नजर आते हैं। चाहे वह किसी फिल्म की स्क्रीनिंग हो या फिर फिल्मी पार्टी।

आप किसी कैंप का हिस्सा नहीं बने, जबकि कई लोगों से आपके बहुत अच्छे संबंध रहे हैं, चाहे वो अनुराग कश्यप हों या फिर संजय लीला भंसाली?

अनुराग कश्यप ने मेरी एक फिल्म डायरेक्ट की है और तीन फिल्में प्रोड्यूस की है। ‘बैड कॉप’ में मेरे को-एक्टर भी हैं। अब तो अनुराग का भी कोई कैंप ही नहीं रहा है। वो तो खुद ही कई कैंप से निकलकर आए हैं। रही बात मेरी तो मैंने कभी किसी कैंप में शामिल होने की कोशिश ही नहीं की।

कैंप का फायदा और नुकसान क्या हैं?

अगर आप किसी कैंप का हिस्सा हैं तो मौका तो मिलता ही है। लेकिन यह आपकी काबिलियत पर निर्भर करता है। आप पर सामने वाला कितना भरोसा करता है। लेकिन मेरा मानना है कि अगर अलग पहचान बनानी है तो अलग-अलग कैंप के साथ काम करना पड़ेगा।

सक्सेस और फेलियर के बारे में क्या कहना है?

फिलहाल तो मैं अभी ठीक ठाक पोजीशन पर हूं। अपनी जर्नी पर फोकस करता हूं। अपना काम ईमानदारी और इंट्रेस्ट से करता हूं। अगर मैं कोई काम इन्जॉय के साथ करूंगा तो मेरा काम बढ़िया होगा। उसका मुझे रिजल्ट भी अच्छा मिलेगा।

Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *