पुरी2 घंटे पहले
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तस्वीर साल 2023 की पुरी जगन्नाथ यात्रा की है। हर साल बलभद्र, सुभद्रा और जगन्नाथ की प्रतिमाओं को रथ में बैठाकर उनकी मौसी के घर ले जाया जाता है।
ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की यात्रा के लिए रथ तैयार किए जा रहे हैं। 10 मई से 320 कारीगर दिन के 14 घंटे इन रथों को तैयार करने में लगे हुए हैं। रथ बनाने वाले इन कारीगरों को भुई कहा जाता है। रथ निर्माण की यह कार्यशाला जगन्नाथ मंदिर के मुख्य सिंह द्वार से महज 70-80 मीटर दूर है।
रथ यात्रा में अटूट श्रद्धा के चलते 10 जुलाई तक ये कारीगर दिन में केवल एक बार भोजन करेंगे। उनके भोजन में प्याज-लहसुन भी नहीं होगा।
दैनिक भास्कर के साथ खास बातचीत में भोइयों के मुखिया रवि भोई ने कहा कि रथ निर्माण से लेकर यात्रा के लौटने तक हममें से कोई भी लहसुन-प्याज नहीं खाता। कोशिश करते हैं कि दिन में फल या हल्का-फुल्का कुछ खाकर रह लें। काम खत्म करने के बाद मंदिर प्रशासन की ओर से पूरा महाप्रसाद मिलता है।
उन्होंने आगे कहा कि हम उमस और 35 से 40 डिग्री की तपती धूप में हर दिन 12 से 14 घंटे काम कर रहे हैं। आलस्य न आए, हम बीमार न पड़ें, इसलिए सख्त दिनचर्या का पालन करते हैं।
रवि ने बताया कि उनका परिवार 4 पीढ़ी से रथ बना रहा है। इस वक्त उनका नौजवान बेटा भी रथ निर्माण में साथ है। फिलहाल रथ के पहिए, कलश बनकर तैयार हो चुके हैं और तोता, घोड़ा, सारथी, द्वारपाल, देवा-देवी की मूर्तियों पर रंग चल रहा है।

भगवान जगन्नाथ का रथ।
800 साल से 20 इंच की ‘जादू की छड़ी’ से बन रहा रथ
भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदी घोष या गरुड़ ध्वज, उनके बड़े भाई बलभद्र जी के रथ का नाम ताल ध्वज और बहन सुभद्रा के रथ को दर्प दलन कहते हैं। इन्हें लकड़ी के 812 टुकड़ों से बनाया जा रहा है।
नंदी घोष रथ के मुख्य विश्वकर्मा विजय महापात्र बताते हैं कि तीनों रथ अत्याधुनिक औजार से नहीं, बल्कि 20 इंच के लकड़ी के डंडे से नाप लेकर बनते हैं। यह 800 साल पुरानी परंपरा है। उन्होंने आगे बताया कि इस डंडे में 3 अंगुली, 4 अंगुली, आधा अंगुली के मार्क हैं।
दर्प दलन रथ के मुख्य विश्वकर्मा कृष्ण चंद्र महाराणा ने बताया कि इस छोटी सी लकड़ी को रथ निर्माण के लिए आई लकड़ियों के ऊपर रखकर नाप लेते हैं। पहिया, ध्वज, सीढ़ियां, दीवारों की लकड़ी के नाप अंगुलियों से तय हैं। हम इसे जादू की छड़ी कहते हैं, क्योंकि इससे आज तक एक इंच भी इधर से उधर नहीं हुआ।
7 समुदाय के लोग तैयार करते हैं रथ
रथ बनाने में सात समुदाय के लोग दिन-रात मेहनत करते हैं।’ इन समुदायों में सबसे ऊपर विश्वकर्मा हैं, ये भी तीन उपसमुदाय में बंटे होते हैं। काम के आधार पर इनका विभाजन होता है। हर रथ में तीन प्रमुख महाराणा होते हैं। सभी की अपनी टीम होती है।
पहला: महाराणा यानी विश्वकर्मा। ये तीन तरह के होते हैं।प्रमुख महाराणा और सुतारी महाराणा- इनका काम रथ के हर हिस्से की नाप रखना होता है। रथ के हर हिस्से की नाप तय है, उसे इंच-आधा इंच भी इधर-उधर नहीं कर सकते। फिर आते हैं तली महाराणा। इनका काम होता है, रथ के तैयार पार्ट्स को जोड़ना।
दूसरा: भोई सेवक, इनका काम है भारी-भरकम लकड़ियों को रथ निर्माण की जगह पर पहुंचाना। लकड़ियां सुरक्षित रहें, इसके लिए छांव का इंतजाम भी यही लोग करते हैं।
तीसरा: करतिया, ये लोग लकड़ी चीरने का काम करते हैं।
चौथा: लोहार, ये कांटे और छल्ले तैयार करते हैं, इनका काम लोहे को आकार देना है।
पांचवां: रूपकार, इनका काम लकड़ी पर कलाकृतियां उकेरना है।
छठा: दर्जी, जो रथ में कपड़े का काम करते हैं।
सातवां: चित्रकार, रथ में रंग भरना और पारंपरिक चित्र बनाना इनका काम है।

भगवान जगन्नाथ के नंदीघोष में 16 पहिए, सबके अलग-अलग नाम
भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदीघोष है। इसमें 16 पहिए होते हैं। हर पहिए की ऊंचाई 6 फीट है। ध्वजा का नाम त्रैलोक्यमोहिनी है। रथ में 742 लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल होता है। इसे खींचने के लिए इस्तेमाल होने वाली रस्सी को शंखचूड़ कहते हैं। रथ के सारथी का नाम दारुक है।
जगन्नाथजी के मंदिर में हनुमानजी का भी एक मंदिर है। मान्यता है कि रथ की सफेद रंग की ध्वजा पर हनुमानजी विराजते हैं। इसलिए जगन्नाथजी के रथ का नाम कपिध्वज भी है। रथ के 16 पहियों के नाम हैं- विष्णुबुद्धि, विभूति, प्रज्ञा, धि, ज्ञान, प्रेम, आसक्त, रति, केलि, सत्य, सुष्वती, जागृति, तुरीय, आम, अणिमा और निर्वाण।



यात्रा के बाद तोड़ देते हैं रथ, लकड़ी भक्त ले जाते हैं
रथ बनाने के लिए लकड़ियां ओडिशा के मयूरभंज, गंजाम और क्योंझर जिले के जंगलों से आती हैं। इसके लिए वन विभाग के अधिकारी मंदिर को सूचना भेजते हैं। फिर पुजारी जंगल में जाते हैं। पेड़ों की पूजा करते हैं। इसके बाद सोने की कुल्हाड़ी से पेड़ पर कट लगाया जाता है। पेड़ के गिरने के बाद भी उसकी पूजा की जाती है।
यात्रा के बाद रथ तोड़ दिए जाते हैं। ये काम भी इन्हें बनाने वाले कारपेंटर ही करते हैं। टूटने के बाद रथों की लकड़ियां भक्त ले जाते हैं। अगर दूसरे मंदिरों से डिमांड आती है, तो रथों के पहिए उन्हें दे दिए जाते हैं।
भास्कर रिपोर्टर प्रियंका साहू के इनपुट के साथ….