इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक आदेश पारित करने के लिए खाली मुद्रित प्रोफार्मा का उपयोग करना अस्वीकार्य है। इस प्रकार का आदेश पारित करने में न्यायिक मस्तिष्क के गैर-उपयोग का संकेत मिलता है। जस्टिस सैयद कमर हसन रिजवी की कोर्ट ने
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इन टिप्पणियों के साथ कोर्ट ने न्यायिक मजिस्ट्रेट आजमगढ़ द्वारा पारित एक संज्ञान और सम्मन आदेश को रद्द कर दिया, जो आईपीसी की धारा 434, 506 के तहत एक मामले से संबंधित था। न्यायिक अधिकारी को मामले में दायर आरोप पत्र पर आदेश पारित करने का निर्देश दिया गया है।
कोर्ट ने रोशन लाल द्वारा दायर सीआरपीसी की धारा 482 के अन्तर्गत दाखिल याचिका पर आदेश दिया। इस याचिका में जुलाई 2022 के संज्ञान/सम्मन आदेश और अतिरिक्त सिविल जज (न्यायिक डिवीजन)/न्यायिक मजिस्ट्रेट, आजमगढ़ की अदालत के समक्ष लंबित आपराधिक मामले में कार्यवाही को चुनौती दी गई थी।
विपक्षी के कहने पर फंसाया गया
याची ने आरोप लगाया कि उसे आपराधिक मामले में विपक्षी के कहने पर फंसाया गया था, ताकि उसे परेशान किया जा सके। आवेदक और विपक्षी पार्टी नंबर 2 के बीच विवाद विशुद्ध रूप से नागरिक प्रकृति का है। यह भी तर्क दिया गया कि नीचे की कोर्ट ने सबसे मनमाने और यांत्रिक तरीके से, सीआरपीसी की धारा 190 की भावना को दरकिनार करते हुए एक मुद्रित प्रोफार्मा पर समन एवं संज्ञान आदेश पारित किया।
कोर्ट ने आक्षेपित आदेश का अवलोकन किया तथा पाया कि न्यायिक मजिस्ट्रेट ने कोर्ट की मुहर के ऊपर अपना संक्षिप्त हस्ताक्षर लगाकर और केवल केस नंबर, अभियुक्त का नाम, भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराओं के आंकड़े भरकर एक मुद्रित प्रोफार्मा पर आदेश पारित किया है। पुलिस स्टेशन का नाम, आदेश जारी होने की तारीख और अगली तारीख तय कर दी।
दिमाग का प्रयोग नहीं किया
हाईकोर्ट ने कहा कि यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि वर्तमान मामले में, आक्षेपित संज्ञान और सम्मन आदेश बिना किसी दिमाग का प्रयोग किए पारित किया गया है। कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने यांत्रिक तरीके से आपराधिक कार्यवाही शुरू की। जाहिर तौर पर बिना दिमाग लगाए, एक मुद्रित प्रोफार्मा पर आक्षेपित संज्ञान/सम्मन आदेश जारी करके आपराधिक कार्यवाही को शुरू किया।